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नीतीश कुमार ने I.N.D.I.A. गठबंधन का संयोजक बनने से क्यों किया इनकार, 5 प्वाइंट में समझिए अंदर की बात


पटनाः
नीतीश कुमार के एक पैंतरे से विपक्ष हलकान-परेशान है। विपक्षी नेताओं के पटना में पहले जुटान से वर्चुअल बैठक तक उनको संयोजक बनाए जाने की चर्चा होती रही। इसमें हो रहे विलंब को लेकर उनके नाराज होने की खबरें भी आईं। राहुल गांधी और उद्धव ठाकरे ने उन्हें मनाने की कोशिश भी की। राहुल गांधी ने वर्चुल बैठक में इस बात का रहस्य भी खोल दिया कि क्यों नीतीश को संयोजक बनाने में देर हो रही है। फिर नीतीश के नाम का प्रस्ताव भी उन्होंने ही किया। बैठक में शामिल हुए लोगों ने इस पर हामी भी भरी। पर, नीतीश ने बड़ी शालीनता से राहुल का प्रस्ताव ठुकरा दिया। इंडी अलायंस के पार्टनर समेत तमाम लोग आश्चर्य में हैं कि नीतीश ने ऐसा क्यों किया! नीतीश कुमार समझदार, अनुभवी और अच्छे गुणों से लैस नेता हैं। उन्होंने कुछ सोच-समझ कर ही फैसला लिया होगा।

1. संयोजक बन कर कुछ हासिल होने वाला नहीं था

शायद नीतीश यह बात समझ रहे हैं कि अब संयोजक बन कर वे क्या करेंगे। पीएम तो बनने से रहे। इसलिए कि ममता बनर्जी ने मल्लिकार्जुन खरगे का नाम पहले ही प्रस्तावित कर दिया है। चुनाव सिर पर है। यह भी सबको पता है कि अयोध्या में 22 जनवरी के राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा समारोह के बाद किसी वक्त लोकसभा चुनाव का ऐलान हो सकता है। सीटों के बंटवारे का काम अब भी उलझा हुआ है। बिहार में सीटों पर सहमति नहीं बन पाई। उत्तर प्रदेश में सीटों को लेकर घमासान मचा है। ममता बनर्जी बंगाल में कांग्रेस और वाम दलों से बिदकी हुई हैं। महाराष्ट्र में भी उद्धव ठाकरे सीटों की जिद पर अड़े हुए हैं। नीतीश कुमार अगर संयोजक का पद स्वीकार कर लेते तो उन्हें ऐसे ही लफड़ों से पहले दो-चार होना पड़ता। मान लेते हैं कि नीतीश इस लफड़े को सुलझाने में कामयाब भी हो जाते तो उन्हें हासिल क्या होता? बिहार की गद्दी छिनने का खतरा बढ़ जाता और राष्ट्रीय राजनीति में उनकी कोई मुकम्मल भूमिका भी नहीं रहती।

2. बिहार की सत्ता छोड़ने का आरजेडी दबाव बनाता

आरजेडी ने नीतीश को साथ लाने का फैसला ही इसीलिए किया था कि वे बिहार की गद्दी लालू यादव के बेटे और बिहार के डेप्युटी सीएम तेजस्वी यादव को सौंप कर राष्ट्रीय राजनीति में जाएंगे। उन्हें तो आरजेडी नेताओं ने विपक्ष के पीएम फेस बनाने का भरोसा भी दिया था। आरजेडी के बिहार प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह ने खुल्लमखुल्ला कहा था कि नीतीश जी को लालू जी ने पीएम बनने का आशीर्वाद दे दिया है। लालू का आशीर्वाद कभी बेकार नहीं जाता। इंद्र कुमार गुजराल, एचडी देवेगौड़ा जैसे नेता पीएम बने तो उसमें लालू की ही भूमिका थी। आफर आकर्षक था। इसलिए कि तत्काल उनकी सीएम की कुर्सी पर कोई खतरा नजर नहीं आ रहा था। हालांकि नीतीश ने यहां भी आरजेडी के मंसूबों को यह कह कर ध्वस्त कर दिया था कि 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव तेजस्वी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। यानी बड़ी चालाकी से उन्होंने 2025 तक टाइम बाई कर लिया। संयोजक बनने का प्रस्ताव कबूल करते तो नीतीश पर सीएम की कुर्सी छोड़ने का आरजेडी दबाव बनाता। नीतीश भी नैतिक रूप से मजबूर होते। इसलिए कि संयोजक बनने के बाद दो भूमिकाएं निभानी आसान नहीं होतीं। नीतीश कुमार सीएम की निश्चित कुर्सी छोड़ अनिश्चित भविष्य की गाड़ी के सवार बन कर रह जाते।

3. कांग्रेस को उसके ही अंदाज में नीतीश ने समझाया

नीतीश कुमार को कांग्रेस से कोफ्त तो उसी दन हो गई थी, जब सोनिया से मिलने के लिए उन्हें लालू यादव का सहारा लेना पड़ा। मुलाकात हुई भी तो कंक्रीट जवाब सोनिया ने नहीं दिया। इस बीच नीतीश याचक भाव से कांग्रेस नेताओं से विनती करते रहे कि विपक्ष को एकजुट करने में विलंब घातक होगा। कभी सलमान खुर्शीद के सामने उन्होंने आग्रह किया तो कभी प्रदेश स्तर के नेताओं के माध्यम से अपना संदेश कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचाने की कोशिश की। आखिरकार कांग्रेस ने उन्हें विपक्षी एकजुटता का काम आगे बढ़ाने के लिए ग्रीन सिग्नल तो दिया, लेकिन जैसे ही नीतीश ने डेढ़ दर्जन दलों को जुटाया, कांग्रेस ने कमान अपने हाथ में ले ली। नीतीश की भूमिका दूसरी से पांचवीं बैठक तक एक सामान्य साझीदार दल के नेता की रह गई। गठबंधन के फैसले कांग्रेस लेती रही। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस ने गठबंधन की गतिविधियां ठप कर दीं। इसके लिए नीतीश कांग्रेस को कोसते रहे। इस बीच नीतीश को संयोजक बनाए जाने की चर्चा भी चलती रही। नीतीश की पार्टी में विघटन का खतरा भी उन्हें अलायंस पार्टनर आरजेडी से दिखने लगा। ममता बनर्नी तो नीतीश को संयोजक बनने के खिलाफ ही थीं। यह बात भी बैठक में राहुल गांधी ने ही बताई। नीतीश के सयोजक बनने से इनकार की एक नहीं, ऐसी कई वजहें रहीं, जो कांग्रेस ने पैदा की।

4. इंडी अलायंस का भविष्य अच्छा नहीं दिख रहा हो

नीतीश कुमार को इंडी अलायंस का हश्र भी शायद 2019 की तरह दिख रहा होगा। टीडीपी नेता चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र प्रदेश का सीएम रहते वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले विपक्ष की ऐसी ही गोलबंदी की थी। बाद गठबंधन की गांठें तो छितरा ही गई थीं, नायडू का सीएम पद भी चला गया। ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल और उद्धव ठाकरे जैसे गठबंधन में शामिल नेताओं के हाव-भाव से तो यही लगता है कि आखिरी वक्त तक इडी अलायंस अक्षुण्ण रह भी पाएगा या नहीं। बीजेपी के राम मंदिर अभियान से देश में भगवा लहर चल रही है। विपक्ष के कई नेता राम और सनातन को लेकर अपनी बयानबाजी से भाजपा के मजबूत होने की राह आसान कर रहे हैं। नीतीश ने हर धर्म के प्रति सम्मान का भाव अभी तक रखा है। संभव है कि नीतीश के मन में गठबंधन के भविष्य को लेकर शंका पैदा हो गई हो।

5. एनडीए में वापसी का प्लाट तैयार, झंडी का इंतजार

नीतीश कुमार कहते रहे हैं कि आज भी भाजपा नेताओं से उनके संबंध अच्छे हैं। वे भाजपा नेताओं की जयंती-पुण्यतिथि भी मनाते रहे हैं। पीएम नरेंद्र मोदी से आत्मीय भाव से मिलते हैं। उनके साथ फोटो सेशन कराते हैं। गृह मंत्री अमित शाह से भी मिलने में अब उन्हें संकोच नहीं होता। इस बीच संयोजक पद से उनका इनकार। ये सभी संकेत देते हैं कि एनडीए में उनकी वापसी का प्लाट तैयार है। सिर्फ उनकी हरी झंडी का भाजपा इंतजार कर रही है। बिहार में खरमास यानी सोमवार के बाद किसी बड़े सियासी खेल के संकेत साफ दिखाई दे रहे हैं।

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